छठ पूजा की पौराणिक इतिहास
ऐसे तो भारत में सभी त्योहार बड़े हर्ष और उल्लास के साथ मनाएं जाते है ,सभी त्योहार का अपना ही एक अलग महत्व हुआ सभी त्योहारों में से एक है इन्हीं में एक है लोक आस्था का महापर्व छठ, जिसे माना जाता है की यह रामायण और महाभारत काल से ही मनाने की परंपरा चली आ रही है।
इस पर्व की शुरुवात नहाय-खाय के साथ आरंभ आरंभ होता है । चार दिवसीय महापर्व को लेकर कई कथाएं मौजूद हैं। जैसे की एक कथा के अनुसार, महाभारत काल में जब पांडव अपना सारा राजपाट जुए में हार गए, तब द्रौपदी ने छठ व्रत किया। इससे उनकी मनोकामनाएं पूर्ण हुईं तथा पांडवों को राजपाट वापस मिल गया। इसके बाद छठ महापर्व का उल्लेख रामायण काल में भी मिलता है।और एक अन्य मान्यता के अनुसार, छठ या सूर्य पूजा महाभारत काल से की जाती है। कहा जाता है की इस छठ महापर्व छठ पूजा की शुरुआत सूर्य पुत्र कर्ण ने की थी। कर्ण भगवान सूर्य के परम भक्त थे।और मान्याताओं के अनुसार, वे हर दिन घंटों पानी में खड़े रहकर सूर्य को अर्घ्य देते थे।भगवान सूर्य की कृपा से ही वे महान योद्धा बने थे।
चार दिनों तक चलने वाले लोकआस्था के इस महापर्व में व्रती को लगभग तीन दिन का व्रत रखना होता है जिसमें से दो दिन तो निर्जला व्रत रखा जाता है।यह त्योहार पूरी तरह से श्रद्धा और शुद्धता का पर्व है। इस व्रत को महिलाओं के साथ ही पुरुष भी रखते हैं।
छठ पर्व शुरुवात में केवल बिहार, झारखंड और उत्तर भारत में ही मनाया जाता था, लेकिन अब धीरे-धीरे पूरे देश में इसके महत्व को स्वीकार कर लिया गया है। यह महान पर्व छठ षष्ठी का अपभ्रंश है। इस कारण इस व्रत का नामकरण छठ व्रत हो गया। यह लोकास्था का पर छठ साल में दो बार मनाया जाता है। पहला चैत्र महीने में और दूसरा कार्तिक महीने में।माह चैत्र शुक्ल पक्ष षष्ठी पर मनाए जाने वाले छठ पर्व को चैती छठ और कार्तिक महीने के शुक्ल पक्ष षष्ठी पर मनाए जाने वाले पर्व को कार्तिकी छठ कहा जाता है।
इस पूजा के लिए चार दिन महत्वपूर्ण हैं नहाय-खाय, खरना या लोहंडा, सांझा अर्घ्य और सूर्योदय अर्घ्य। छठ की पूजा में गन्ना, फल, डाला और सूप आदि का प्रयोग किया जाता है। मान्यताओं के अनुसार, छठी मइया को भगवान सूर्य की बहन बताया गया हैं। इस पर्व के दौरान छठी मइया के अलावा भगवान सूर्य की पूजा-आराधना होती है। कहा जाता है कि जो व्यक्ति इन दोनों की अर्चना करता है उनकी संतानों की छठी माता रक्षा करती हैं। कहते हैं कि भगवान की शक्ति से ही चार दिनों का यह कठिन व्रत संपन्न हो पाता है।
वास्तविक मायने छठ महापर्व में सूर्योपासना का पर्व है। इसलिए इसे सूर्य षष्ठी व्रत के नाम से भी जाना जाता है। इसमें सूर्य की उपासना उनकी कृपा प्राप्त करने के लिए की जाती है। पूजा करने वाले लोगों में ऐसा विश्वास है कि इस दिन सूर्यदेव की आराधना करने से व्रती को सुख, सौभाग्य और समृद्धि की प्राप्ति होती है और उसकी सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं। इस पर्व के आयोजन का उल्लेख प्राचीन ग्रंथों में भी पाया जाता है। इस दिन पुण्यसलिला नदियों, तालाब या फिर किसी पोखर के किनारे पर पानी में खड़े होकर सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है।
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, कार्तिक शुक्ल पक्ष की षष्ठी के सूर्यास्त और सप्तमी के सूर्योदय के मध्य वेदमाता गायत्री का जन्म हुआ था। प्रकृति के षष्ठ अंश से उत्पन्न षष्ठी माता बालकों की रक्षा करने वाले विष्णु भगवान द्वारा रची माया हैं। बालक के जन्म के छठे दिन छठी मैया की पूजा-अर्चना की जाती है, जिससे बच्चे के ग्रह-गोचर शांत हो जाएं और जिंदगी में किसी प्रकार का कष्ट नहीं आए। इस मान्यता के तहत ही इस तिथि को षष्ठी देवी का व्रत होने लगा।
छठ महापर्व का सामाजिक का अपना महत्व भी है यह पर्व बिना किसी से भेदभाव, ऊंच-नीच, जात-पात भूलकर सभी एक साथ इसे लोग इसे बड़े हीं उत्साह से मनाते हैं ऐसा किसी भी लोक परंपरा में नहीं है। सूर्य, जो रोशनी और जीवन के प्रमुख स्रोत हैं और ईश्वर के रूप में जो रोज सुबह दिखाई देते हैं उनकी उपासना की जाती है। इस महापर्व में शुद्धता और स्वच्छता का विशेष ख्याल रखा जाता है और कहते हैं कि इस पूजा में कोई गलती हो तो तुरंत क्षमा याचना करनी चाहिए वरना तुरंत सजा भी मिल जाती है।
सबसे बड़ी बात है कि यह पर्व सबको एक सूत्र में पिरोने का काम करता है। इस पर्व में अमीर-गरीब, बड़े-छोटे का भेद मिट जाता है। सब एक समान एक ही विधि से भगवान की पूजा करते हैं। अमीर हो वो भी मिट्टी के चूल्हे पर ही प्रसाद बनाता है और गरीब भी, सब एक साथ गंगा तट पर एक जैसे दिखते हैं। बांस के बने सूप में ही अर्घ्य दिया जाता है। प्रसाद भी एक जैसा ही और गंगा और भगवान भास्कर सबके लिए एक जैसे हैं।
आज के समय में कहीं ऐसा भी देखा जाता है की इस पर्व को आस्था और विश्वास के साथ अन्य धर्म और मजहब के लोग भी मानते है और मन्नत पूरी होने पर पूरी आस्था के साथ यह पर्व करते है।